Sunday, 9 February 2020

प्रायश्चित

प्रिय मानसी,

कैसी हो,मुझे माफ़ करना मैंने आज बहुत डांटा तुम्हें,पर अब बहुत ग्लानि महसूस कर रहा हूं और खुद को रोक नहीं पा रहा तुम्हें यह सब लिखने से। मैंने आज बहुत ग़लत किया जब तुम्हें तुम्हारे कपड़ों की साइज को लेकर टोका और थोड़ी बहस के बाद तुम रोने लगी।तुम्हारे तर्क बहुत मजबूत थे कि शर्म मुझे नहीं देखने वाले को आनी चाहिए जो केवल यहीं देख पा रहा है।पर बेटा मैं तुम्हे कैसे बताऊं।।
क्या बताऊं।।
तुम जब पैदा हुई थी मैं तुम्हारे छोटे छोटे पैरों और मासूम उंगलियों से खेलता रहता था।तुम जब अपनी हथेली से मेरी उंगली कसकर पकड़ लेती तो ऐसा लगता जैसे जीवन सार्थक हो गया है। मैं ऑफिस से दौड़ा दौड़ा आता और इंतजार करता तुम्हारी एक किलकारी के लिए।जब तुम चलने लगी तो तुम्हारी पायल की रुनझुन गूंजती रहती थी मेरे कानों में सारा दिन।पर बेटा आज मैंने तुम्हें रुला दिया।अब मेरा प्रायश्चित तब तक पूरा नहीं होगा जब तक मैं तुम्हें सारी बातें सच सच ना बता दूं।यह मेरे जीवन की वो बातें है जो मैं किसी से बांटना नहीं चाहता,तुम्हारी मां से भी नहीं,पर आज मैं यह सब तुमसे बांट रहा हूं।

बेटा आज की घटना केवल आज ही की घटनाओं का परिणाम नहीं थी,इसकी स्क्रिप्ट तो तब ही लिख ली गई थी जब मैं तुम्हारी उम्र का था और मुझे मेरे दोस्तों और सीनियर्स ने राह गुजरती लड़की को आइटम कहकर छेड़ना सिखाया।आइटम/पटाखा ये सब आम शब्द थे जो हम लड़कियों के लिए प्रयोग करते और फिर तालियां पीटते।हम कॉलेज के बाद लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ जाते और साथी लड़कियों को घूरते रहते।वह हमारा विटामिन ए के सेवन का पीरियड होता था।पर बेटा क्या कहूं वो घूरते क्या थे उनका तो हम मानसिक बलात्कार करते होते थे।और यहीं सबसे बड़ा कारण था कि मैंने तुम्हारी बुआ के कॉलेज पढ़ने का सबसे ज्यादा विरोध किया।लगता है उस दोष का प्रायश्चित भी आज ही होगा।बेटा उस समय मैं जिन लोगों के बीच में उठता बैठता था वहां हमारा हर वाक्य किसी मां,बहन की गाली से शुरू होता था। बहुत सालों बाद तुम्हारी मां ने ही मुझे यह अहसास कराया था कि उस मां और बहन पर क्या गुजरती होगी जिसका पुरुष की मां - बहन होने का श्रेय उसकी हर गाली में स्थान पाना था।बाद में मैं इन गालियों से साला टाइप गालियों पर आ गया।बिना यह समझे कि ये भी तो मेरी मां ,पत्नी और हर स्त्री को मानव नहीं पर शरीर ही बना रही हैं।और शरीर भी नहीं बस एक खिलौना जिससे हम सब को खेलना है।
कभी वास्तव में,
कभी आंखों से,
कभी गालियां देकर,
 तो कभी बकचोदी में।
देखो ना हमने हमारी दोस्तों की महफ़िल को भी बकचोदी नाम दे दिया था,समझ रही हो ना तुम इस शब्द का मतलब ।

पर बेटा सच कहूं मैं आज जितना भी पीछे मुड़कर देख पा रहा हूं इनमें से एक भी हरकत मैंने सोच समझकर नहीं की,मुझे दोस्तों, रिश्तेदारों, फिल्मों सब ने यहीं सिखाया कि औरतों को औरतों की तरह नहीं बस एक शरीर की तरह देखो, मनोरंजन के लिए उपलब्ध शरीर।जब मेरे लिए लड़की ढूंढी जा रही थी तब दोस्तों ने कहा "लड़की चंद्रमुखी हो या पारो की फर्क पैंदा है।"

मुझे ये बताते हुए भी बहुत शर्म आ रही है पर अब बताए बिना नहीं रह पाऊंगा कि मुझे धीरे धीरे ब्लू फिल्में देखने की लत लग गई थी और बाद में यह आदत इतनी खतरनाक हो गई कि कुछ समय तक मुझे हर महिला बिना कपड़ों के ही नजर आती।और ये ही कारण था जब मैं तुम्हारी मां को घर से बाहर निकलने पर टोकता भी था और रोकता भी था। हमारे बीच के बहुत से झगड़े इसी कारण हुए। मैं बहुत डरा रहता सड़कों पर घूमते अपने ही जैसे हैवानों से जिनकी पढ़ाई ही शीला की जवानी जैसे गानों से हुई थी।मुझे आज इस चीज़ पर बहुत पछतावा है और मैं हर लड़की से माफी मांगना चाहता हूं,पर उस समय यह सब मेरे लिए केवल एक फन था।वास्तव में इस फन ने मुझे धीरे धीरे एक मानसिक बलात्कारी में बदल दिया था।और आज जब मैं गहरे सोच रहा हूं तो डर रहा हूं यह स्वीकारते कि जीवन में कभी कमज़ोर क्षण नहीं आया,नहीं तो क्या पता तुम्हारा पिता भी समाज की नज़रों में किसी का बलात्कारी होता।पर बेटा मैं बलात्कारी ही हूं,मैंने भले ही हैदराबाद में प्रियंका की घटना पर वॉट्सएप स्टेटस डालकर बलात्कारियों को गारियाया हो पर आज मुझे महसूस हो रहा है कि हम मानसिक बलात्कारियों और वास्तविक बलात्कारियों में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता।


तुम उस दिन पूछ रही थी ना अपनी मां से कि पापा मुझे बस में जाने क्यूं नहीं देते तो बेटा इसके पीछे भी मेरी हैवानियत ही रही है।हम दोस्त जब भी बस में जाते तो किसी ना किसी लड़की या महिला को छेड़ते जरूर।हमें उसे छूने,तंग करने में बहुत मज़ा आता और जब उस दिन तुमने पहली बार बस से कॉलेज जाने की बात की तो मेरे मस्तिष्क में एक दम वो सारे दृश्य घूम गए,मुझे लगा कि कोई तुम्हें भी उसी तरह छूने की कोशिश कर रहा है,तंग कर रहा है।बेटा तुम मेरे कलेजे का टुकड़ा हो और मैं कल्पना में भी तुम्हे परेशान होते नहीं देख सकता।पर आज मेरे आंसू थम नहीं रहे। मैं सच में किसी भी बेटी के बाप होने के काबिल नहीं हूं ।तुम तो मेरा खून हो, मेरे ही हाथों से पली बढ़ी,तुम मेरे लिए कोई शरीर,कोई स्त्री नहीं बहुत कुछ हो।पर बिटिया मैं सिहर जाता हूं यह सोचकर कि घर से बाहर निकलते ही तुम लोगों के लिए क्या बन जाओगी। मैं अंदर ही अंदर बहुत कुढ़ता हूं यह सोचकर कि तुम्हारा भाई मानस क्यूं पूरा दिन पोर्न देखता रहता है और बीबी की वाइंस को फॉरवर्ड करता रहता है पर सच्चाई यह है कि ऐसा समाज मैंने ही उसे दिया है और मुझे मेरे पूर्वजों द्वारा।

हम सब को यहीं सिखाया गया है कि यह सब फन है पर इसी नासमझी ने हमारी दुनिया को तुम्हारे लिए कितना डरावना बना दिया और कितना असुरक्षित भी।

 बेटा अब मेरे जीवन की सांझ आ ढली है। फन के नाम पर मैंने वो सब किया है जिसे सोचकर ही अब मैं शर्म से जमीन में गड़े जा रहा हूं।जो मैंने किया तुम्हें उसकी मैंने केवल झलक दिखलाई है पर असलियत इससे भी नंगी है।मुझे जीवन में हमेशा यह दुख रहेगा कि मैं खुद भी इस फन की खोज में केवल एक शरीर ही बना रहा। आज वास्तव में तुमने मेरी आंखे खोल दी है। मैं अकेला तो अब यह सब बदल नहीं सकता पर तुमसे इन सारे कृत्यों की माफ़ी तो मांग ही सकता हूं । मैं बहुत, बहुत शर्मिंदा हूं अपने बीते दौर पर जब मैं तुम्हारे लिए ऐसा गंदा समाज बना रहा था। मुझे हर समय तुम्हारे लिए डर लगा रहता है और यहीं मेरे गुनाहों की सबसे बड़ी सजा है। कोशिश करना बिटिया अगर अपने इस अभागे पिता को माफ़ कर पाओ तो।
तुम्हारा पिता।।

Saturday, 28 September 2019

सेनेटरी नेपकिन क्या अंतिम समाधान है।

उदयपुर में चलाए जा रहे चुप्पी तोड़ो अभियान को तीन माह से अधिक गुजर चुके है ,इसके पूर्व इससे कुछ भिन्न मॉडल पर यह अजमेर में भी चार ब्लॉक्स में चलाया गया था,मूलरूप से यह अभियान किशोरवय छात्राओं एवं उनकी माताओं से माहवारी से जुड़े विभिन्न संदर्भों पर बातचीत एवं उन्हें सही जानकारी पहुंचाए जाने के संबंध में है।हमारा प्रयास रहता है कि इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा चुप्पी टूटे और परिवार में खुलकर बात हो ताकि महिलाएं माहवारी में स्वच्छ साधनों का प्रयोग कर सकें और साथ ही माहवारी से संबंधित स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर खुल कर बात कर सकें।

इस विषय पर काम करने के दौरान ही मेरी भी बहुत सारी अवधारणाओं में सुधार हुआ है और मेरे ज्ञान में भी नए तथ्य जुड़े है। मैं माहवारी स्वच्छता से मतलब केवल सैनिटरी नैपकिन के उपयोग से समझती थी और इस पर बात करने से  मतलब था पानी और स्वच्छता की उपलब्धता और जानकारी पर बात करना।पर धीरे धीरे मेरे ग्रामीण क्षेत्रों के प्रत्यक्ष अनुभवों ने मेरी अवधारणा को बदल दिया।यहां मै एक लड़की सीता की बात करना चाहूंगी जो गोगुंदा ब्लॉक की रहने वाली है।

सीता तीन वर्ष पूर्व नवी में फेल होने की वजह से पढ़ाई छोड़ चुकी है और अब घर में छोटा मोटा सिलाई का काम करती है।उसके पिताजी उसी गांव में काम कर रहे एक ngo में काम करते हैं और भाई सूरत में नौकरी करता है। अजमेर से लेकर जब से मैं इस  चुप्पी तोड़ो अभियान से जुड़ी हूं तब से मैं जब भी किसी किशोरी से मिलती हूं तो उससे माहवारी संबंधी सवाल तो जरूर पूछती हूं जैसे वह उन दिनों में क्या उपयोग में लेती है,उसे कैसे धोती है या फेंकती है और उसे इससे संबंधित कोई बीमारी तो नहीं है।
मैंने जब ये सभी सवाल सीता से पूछे तो उसने बताया कि पहले तो वो स्कूल से मिले पैड्स ही उपयोग में लेती थी पर क्यूंकि अब उसने स्कूल जाना छोड़ दिया है इसलिए वह पुराना कपड़ा उपयोग में लेती है।

मैंने जब उससे पूछा कि उसे क्या बेहतर लगा तो बोली कि कपड़ा बेहतर है क्यूंकि मैं इसे कभी भी घर पर ही धोकर सुखा सकती हूं और फिर से उपयोग में ले लेती हूं।वहीं पैड को उपयोग में लेने के बाद मुझे हमेशा ये चिंता रहती थी कि इन्हें कहां फेंकू।इसके लिए मुझे हमेशा इंतज़ार करना पड़ता था जब मैं 5 दिन के पैड इकट्ठे करके या तो खेत में खड्डा खोदकर दबा देती थी या मटके में जला देती थी,पर इन सारे दिनों तक उनके निस्तारण तक उन्हें घर में रखना तनाव भरा ही होता था।पर जब मैंने उसे कहा कि शहरों में भी तो महिलाएं उसका निस्तारण करती है तो बोलने लगी कि मैडम जी कहां यह गांव और कहां शहर। ना तो हमारे यहां कोई कचरा लेने आता है जिन्हे थैली में बांधकर दे दें और उसका वो जो करे वो राम जाने और ना ही हमारे यहां आधुनिक फ्लश है कि उसमें पैड को पानी में बहा दें जो सीधे जाकर सीवर के पाइप में ही पड़े,ना हमें दिखे ना हमारे घर वालों को।हमारे लिए तो हम भले और हमारा कपड़ा भला।

           फिर मैंने उसे टटोलते हुए कहा कि अगर स्कूल की तरह ही सरकार अब भी तुम्हे पैड मुफ्त दे तो तुम पैड का उपयोग करोगी तो बोली नहीं,नहीं करूंगी क्यूंकि पहले जैसे ही मैं सयानी हुई थी स्कूल में ही पैड मिलने लगे तो कभी कपड़ा कैसा होता है पता नहीं लगा। पैड उपयोग में तो बहुत अच्छा था पर उपयोग करने के बाद उसका क्या करें यह बहुत तनाव जनक था।आज कम से कम कपड़ा उपयोग करने से मैं स्वतंत्र तो हूं।

   अब फिर मैंने उससे पूछा कि कपड़ा तो कहते है स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित नहीं है, टीवी पर देखा नहीं है तुमने कि कपड़े से बहुत बीमारियां फैलती हैं।और फिर तू कौनसा उसे अच्छे से धोती होगी और धूप में सुखाती होगी?

            पर मेरा यह प्रश्न पूछना था कि सीता का चेहरा गुस्से से तमतमा गया,कहने लगी कि क्या मैडम जी आप भी वैसी ही बात करने लगे जैसे कम्पनी वाले करते हैं।पहली बात तो अगर कपड़े से बीमारियां ही फैलती होती तो मैं जो पैंटी रोज पहनती हूं उससे भी बीमारी होनी चाहिए थी,मैंने तो कभी नहीं सुना कि पैंटी पहनने से कोई औरत बीमार हो रही है।ये बात और है कि पैंटी को भी अगर साबुन से धोकर धूप में नहीं सुखाएंगे तो वो भी नई नई बीमारियां ही फैलाएगी। हमें तो आशा बहनजी ने पहले ही बता दिया था कि कपड़ा वापरने में कोई नुकसान नहीं है बशर्ते कि उसे अच्छे से धोया जाए और धूप में सुखाया जाए।

और आप ही बताओ हम इस छपरेले में रहते है,कहां से ये महंगे पैड खरीदेंगे और वापरेंगे,जिनको उपयोग में लाने के बाद भी हजार संकट।जब तक उसे मैं जला या दबा नहीं दूं लगातार चिंता तो बनी ही रहती है।और आपको पता नहीं है जो लड़कियां अभी स्कूल में पढ़ रही है वो तो इसे ना गाड़ रही हैं और ना ही जला रही हैं वो सीधे हमारे गांव के तालाब में डाल देती है।अब तो उस तालाब में पैर भी डालने का मन नहीं करता।

       पर अभी भी सीता के जवाब सुनकर मेरा अहम शांत नहीं हुआ था,इतनी साधारण लड़की और इतने असाधारण तर्क,ये कैसे संभव था।

       मै मन ही मन सोच रही थी कि ये बित्ती सी सीता कह तो सही रही है। गांवो में संक्रमण की कोई बड़े स्तर पर समस्या हो ऐसा कम ही दिखता है,कोई समस्या अगर दिखती भी है तो वो खून की कमी की समस्या है जिसका कारण गरीबी और कुपोषण है ना कि कोई संक्रमण।

सीता के साथ इसी वार्तालाप ने मुझे एक हिंदी दैनिक में छपे सैनिटरी नैपकिन के सकारात्मक प्रभावों की वास्तविकता पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। इस दौरान मैंने इस विषय पर अलग अलग विशेषज्ञों की बहुत सारी रिपोर्ट भी पढ़ी और यथा संभव बहुत सारे gynec डॉक्टर्स से भी बात की और भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए डाटा का भी अध्ययन किया।

यह विषय वास्तव में उतना सरल नहीं है जितना यह प्रकट तया दिखता है।माहवारी स्वच्छता का यह सरलतम रूप है कि हम सैनिटरी नेपकिन के उपयोग को बढ़ावा दे।पर वास्तव में हम यहां समस्या को दूर नहीं कर रहे अप्रत्यक्ष रूप से एक नई समस्या उत्पन्न भी कर रहे हैं।

     वर्तमान में इस क्षेत्र में कार्यरत अधिकांश संस्थाएं,कुछ हद तक सरकारों ने भी अपना कार्यक्षेत्र केवल विद्यालय एवं छात्राओं तक ही सीमित रखा है ।यहां विषय क्षेत्र भी इतना ही लिया गया है कि स्वच्छता मतलब सैनिटरी पैड का उपयोग करना।जबकि सीता जैसे उदाहरणों से स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रों में एक बड़ी आबादी विद्यालयी शिक्षा से छूट गई है या बाहर है।भारत में इस समय लगभग 355 मिलियन आबादी उन महिलाओं एवं लड़कियों की है जिन्हे माहवारी आती है।राष्ट्रीय परिवार स्वासथ्य सर्वे 2015-16  कहता है कि आज भी भारत की 71% लड़कियां ऐसी है जिन्हे पहली बार माहवारी आने से पहले यह पता नहीं होता कि ये क्या होता है और क्यूं होता है।इससे जुड़े हुए अंधविशवासों के कारण ही आज भी इसे महिलाओं के लिए अभिशाप ही माना जाता है।भारत की इसी आबादी का लगभग 45% महिलाएं माहवारी के दिनों में उपलब्ध घरेलू सामग्री पुराने कपड़े वगैरह का उपयोग करती हैं।शहरी इलाकों को छोड़ दे तो ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश स्कूल जाने वाली छात्राएं ही सेनेटरी नेपकिन का उपयोग कर पा रही हैं बाकी महिलाओं के लिए ये प्रोडक्ट्स उनकी पहुंच से बाहर है।ना तो ये प्रोडक्ट्स ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध होते हैं और ना ही सस्ते कि महिलाएं इन्हें निश्चिंत होकर खरीद पाए।हमारा सामाजिक ढांचा भी ऐसा है कि महिलाओ के लिए  गांवों में दुकान से जाकर खरीदना और फिर उसका निस्तारण करना ये दोनों ही दुष्कर कार्य है।

       यहां मैं यह विशेष रूप से उल्लेखित करना चाहूंगी कि सेनेटरी नेपकिन के भी अपने नुकसान है।इस समय पूरे विश्व में एक रिवर्स कैंपेन चल रहा है जो फिर से हमारे परंपरागत तरीकों का प्रचार कर रहा है।भारत में भी बहुत सारी संस्थाएं मिलकर ग्रीन द रेड अभियान चला रही हैं।

वास्तव में तकनीक के नए नए आविष्कारों के साथ ही सैनिटरी नेपकिन भी निरंतर आधुनिक होता गया है।अब इसमें प्राकृतिक सोखता की जगह फाइबर शीट और जेल का उपयोग होने लगा है ये दोनों ही चीजें महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही घातक है।पैड को सफेद करने के लिए डाइऑक्सिन नामक ब्लीच का उपयोग किया जाता है जो अपने आप में कैंसर का बड़ा कारण है।एक महिला अपने पूरे जीवन काल में 11000 से 17000 पैड का उपयोग करती है और हर माह इसके संपर्क में आती है।इसी प्रकार जो सिल्वर लाइनिंग दाग से बचने के लिए लगाई जाती है वह अपने आप में बैक्टीरिया और फंगस को बढ़ाती है।यदि पैड को तीन से चार घंटे में नहीं बदला जाए तो यह बहुत बड़े इंफेक्शन का कारण हो सकता है।साथ ही जो जेल सोखता के रूप में पैड में डाला जाता है वह पॉलिमर है जो कि पेट्रोलियम का बाय प्रोडक्ट है यह भी एलर्जी और अन्य संक्रमण को बढ़ावा देता है।

अब अगर हम सैनिटरी नैपकिन के पर्यावरण पर प्रभावों कि बात करें तो वे असंख्य है।आज भारत में लगभग 57% महिलाएं सैनिटरी नैपकिन का उपयोग कर रही है जिससे लगभग हर वर्ष 12 बिलियन टॅन कचरा पैदा हो रहा है।क्यूंकि इसके निस्तारण का अभी तक कोई भी सही और सुलभ माध्यम प्राप्त नहीं हुआ है इसलिए या तो इसे जला दिया जाता है या गाड़ दिया जाता है। इन दोनों ही तरीकों से  यह मिट्टी या फिर हवा को प्रदूषित करता है और यह प्रदूषक पुनः हमारी खाद्य श्रृंखला में शामिल हो जाते है।कुछ महिलाएं पैड को फ्लश में भी बहा देती है जहां यह सीवर लाइन को ब्लॉक कर देता है और अंतिम रूप से सफाई कर्मियों के स्वास्थ्य के लिए घातक बनता है।एक सैनिटरी नैपकिन को वातावरण में स्वतः निस्तारित होने में 800 वर्ष लग जाते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जहां सैनिटरी नैपकिन उपयोग में अत्यंत ही सुविधा जनक है वहीं इसके महिलाओं के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर अत्यंत ही घातक दुष्प्रभाव है।

        यहीं से अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वास्तव में माहवारी स्वच्छता कार्यक्रम का कार्यक्षेत्र केवल सैनिटरी पैड को बढ़ावा देना ही होना चाहिए या इसके परे जाकर महिलाओं के स्वास्थ्य और सुविधा को ध्यान में रखते हुए अधिकतम संभव विकल्पों के बारे में सभी महिलाओं की जागरूकता बढ़ाने को भी अपने विषय क्षेत्र में लेना चाहिए।इस सम्बन्ध में भारत सरकार की गाइड लाइन बहुत सारे विकल्पों की ओर हमारा ध्यान खींचती है।भारत सरकार द्वारा माहवारी स्वच्छता के संबंध में वर्ष 2015 में जो दिशनिर्देश जारी किए गए हैं उनमें सेनेटरी नेपकिन के साथ ही मेंस्ट्रुअल कप,जैविक पैड,साफ धुला कपड़ा इत्यादि को भी हाइजीनिक साधनों में गिना गया है।यह दिशनिर्देश स्पष्ट करते है कि अगर कपड़े को भी साफ साबुन से धोकर और धूप में सुखा दिया जाता है तो उसके पुनः उपयोग में कोई संक्रमण का खतरा नहीं है।अब वास्तव में इस समय की सबसे ज्यादा जरूरत इस विषय पर खुल कर बात करने की है।क्यूंकि आम भारतीय घरों में यह विषय शर्म और अंधविश्वसों से जुड़ा है जिसके बारे में मां भी अपनी बेटी को खुलकर नहीं बताती ना ही उसे इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करती है।और यहीं चुप्पी इससे जुड़ी समस्याओं का कारण बनती है।जिन घरों में महिलाएं कपड़ा प्रयोग में लाती है वे सभी इसे घर के किसी  अंधेरे कोने में सुखाती हैं और कोई संक्रमण होने पर भी डॉक्टर से संपर्क नहीं करती।कपड़ा उपयोग करना सबसे अधिक पर्यावरण हितैषी हो सकता है बशर्ते कि उसे धूप में सुखाया जाए।यह तभी संभव होगा जब इस विषय पर घर के सभी महिला-पुरुष सदस्य अपनी लाज छोड़कर चुप्पी तोड़ेंगे और इसे एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया की तरह लेंगे।

       इस प्रकार जब तक यह घर घर में चर्चा का विषय नहीं बनेगा तब तक इससे जुड़ी हाइजीन भी दूर की कौड़ी ही रहेगी फिर चाहे महिलाएं कपड़ा उपयोग में ले या सेनेटरी नेपकिन। साथ ही माहवारी स्वच्छता की परिभाषा को भी सैनिटरी नैपकिन के उपयोग तक सीमित ना रखकर इसे एक विस्तृत अवधारणा बनाए जाने की आश्यकता है।

आज जिस प्रकार पूर्व में ही हमारे सामने अपशिष्ट प्रबंधन एक चुनौती बनकर खड़ा हुआ है यह जरूरी है कि हम सभी महिलाओं को माहवारी के दौरान उपयोग में आ सकने वाले सभी साधनों से उनका परिचय कराएं और साथ ही हर प्रोडक्ट के नफा नुकसान से भी अवगत कराएं। सीता के उदाहरण से स्पष्ट है कि जहां  सेनेटरी नेपकिन का निस्तारण ग्रामीण महिलाओं के लिए दुष्कर है वहीं यह उनकी आय क्षमता से भी बाहर है।वहां क्यूं ना हम उन्हें उनके द्वारा पहले से उपयोग लाए जा रहे परंपरागत कपड़े को ही स्वास्थ्य पूर्वक तरीके  से उपयोग में लाना सिखाएं।पर यह तभी संभव है जब माहवारी स्वच्छता की चर्चा में माहवारी संबंधी अंधविश्वासों और कुरीतियों पर भी चोट की जाए।इस संबंध में राजस्थान सरकार का चुप्पी तोड़ो कार्यक्रम उल्लेखनीय है।  यदि हम इस विषय को 7वी कक्षा या 8वी कक्षा के पाठ्यक्रम में डाल सकें तो वह सबसे बड़ा योगदान होगा क्यूंकि आज भी तीन चौथाई से अधिक लड़कियों को माहवारी आने से पहले यह नहीं पता होता कि उनके साथ ऐसा होने वाला है और जो होगा वह सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है और यही अज्ञानता भ्रांतियों का कारण बनती है।अधिकांश माताओं को भी माहवारी का वास्तविक वैज्ञानिक कारण नहीं पता होता और वे भी इससे जुड़े अंधविश्वसों को ही बढ़ावा देती हैं।यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अभी तक सेनेटरी पैड,कपड़े, बायोडिग्रेडेबल पैड या फिर माहवारी कप के कोई नवीन मापदंड भारत सरकार द्वारा निर्धारित नहीं किए गए हैं।ये ही स्थिति इंसिनेरिटर के संबंध में भी है।यहां बहुत सारे विभिन्न मापदंडो के इंसीनरेटर उपलब्ध हैं जो अलग अलग तापमान पर पैड को जलाते है।क्यूंकि भारत सरकार द्वारा माहवारी स्वच्छता को भी स्वच्छ भारत मिशन का भाग बना दिया है अतः कुछ राशि इस शोध पर भी खर्च की जानी चाहिए की सैनिटरी पैड का निस्तारण किस प्रकार किया जाए कि वह पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचा सके।


इस प्रकार अंत में मैं यही लिखना चाहूंगी कि माहवारी स्वच्छता महिलाओं का एक प्राकृतिक और मूलभूत अधिकार है और इसी अधिकार में उसे उपलब्ध सभी विकल्पों के बारे में जानने और उनके फायदे नुकसान की जानकारी का भी अधिकार शामिल है।यह एक महिला की निजी पसंद और सुविधा होनी चाहिए कि वह किस विकल्प का उपयोग करना चाहती है।
     

Sunday, 12 May 2019

ओ मां,
कैसी हो तुम,बहुत व्यस्त हो ना।
मोबाइल तो तुम्हारा तुम्हारे पर्स में ही रह गया होगा और बज रहा होगा अलमारी में बंद कहीं।मुझे पता है तुम्हारे पास इस पत्र का जवाब देने का भी समय नहीं होगा पर आज मेरी संवेदनाएं रुक नहीं रही। आज आपकी बहुत याद आई मां।सब तरफ मदर्स डे का शोर है, मै भी सोच रही थी कि मै क्या कर सकती हूं इस दिन आपके लिए, शायद मै तमाम उम्र भी कोशिश करूं तो तुम्हारे किए का दस फीसदी भी नहीं लौटा सकती।

वैसे भी मै तो कर ही क्या सकती हूं मां, सिवाय रोज नई फरमाइशें करने के,ये बताने के कि आज दिन में ये खाने की इच्छा है और रात में ये।और ये भी कि फलां फलां दिन मेरे सारे दोस्त घर आ रहे हैं आप देख लेना,और तू पचती रहती है पूरा पूरा दिन रसोई में फिर भी मुझे याद है मैंने कितनी ही बार कहा होगा मां आज ये क्या बना दिया।
आपको खाना भी नहीं बनाना आता।
मैंने कभी समझा ही नहीं कि ये एक लाइन आपको कितनी चोट पहुंचाती होगी मां?
पर मां, मां तूने कभी शिकायत ही नहीं की?
तूने कभी नहीं कहा कि बेटा ये घर तुम्हारा भी है,क्यूं नही तुम इसमें हाथ बटाती?पर तुम तो हमेशा कहती रही कि छोड़ो ये सब,तुम्हे चूल्हा चौका थोड़े ही करना है।अपनी पढ़ाई करो।

मां मै बचपन से अपनी पढ़ाई करती रही और फिर नौकरी भी लग गई,पर इस सबसे तुझे क्या दे पाई मैं।बस एक तसल्ली कि तुम अपने पैरों पर खड़ी पढ़ी लिखी बेटी की मां हो।

मुझे याद है मां बचपन में कैसे तुम सवेरे चार बजे उठकर घर का काम करती,हम सब के लिए नाश्ता बनाती,खाना बनाती और फिर आठ बजे अपने स्कूल होती।मुझे आज ये सोचकर ही बहुत दुख हो रहा है कि कभी मैं आपको कहती थी कि आपका वज़न बढ़ रहा है।पर आप करती भी क्या? इतने मसरूफ दिन के बाद कौनसी शाम तुम्हारी अपनी थी।
तुम उसे भी निकाल देती थी हमारे स्कूल/कॉलेज की अगले दिन की तैयारी में,कपड़े धोने में,इस्त्री में या फिर रसोई में।

मां कितना अर्सा हो गया मैंने देखा नहीं तुम्हें कि तुमने कभी तसल्ली से सिर में मालिश की हो,कभी गुनगुनी धूप में जाके तुम लेटी हो या हॉल में जाके तुमने कोई फिल्म देखी हो।तुम्हारी दिनचर्या कभी तुम्हारी दिनचर्या नहीं रही।ये रूटीन तो शायद हमारा था या शायद पापा का था जिसको तुमने अपना लिया था।

मां याद करना कि आखिरी बार तुम कब बाज़ार गई थी और अपनी पसंद की साड़ी लाई थी।मुझे पीछे के दस पंद्रह सालों में कभी याद नहीं आ रहा कि किसी तीज पर तुमने तसल्ली से बैठकर मेहंदी लगाई हो,तुम्हारा तीज का शगुन तो हाथ की बिंदी से ही हो जाता था।कितने दिन हो गए आपने अपना व्हाट्स एप नहीं देखा और कितने बरस हुए जब तुम आखिरी बार अजमेर से बाहर कहीं गई हो।तुमने रिश्तेदारी में कितने ही फंक्शन्स मिस किए है क्योंकि कभी हमारे एग्जाम्स होते थे तो कभी कोई बीमार होता था।तुम्हे पढ़ने का कितना शौक है मां,मेरा किताबों का प्रेम भी तुमसे और पापा से ही आया है,पर याद करो मां तुमने आखिरी बार कौनसी किताब पढ़ी थी।मुझे याद है बहुत बार तुम किसी सन्डे को सुबह अखबार लेकर बैठी हो और हम में से किसी ने कहा हो की क्या मां नाश्ता कब बनाओगी।और हां ये तो मै लिखना ही भूल गई की तुम अखबार भी केवल सन्डे को ही पढ़ पाती हो ।वो भी केवल सुबह,उस समय जब तक हम उठते नहीं है,क्योंकि हमारे उठने के बाद तो तुम्हारा दिन तुम्हारा कहां रहता है मां।कितनी बार ऐसा हुआ है मां कि तुमने बहुत जुकाम /बुखार के बावजूद भी घर संभाला है।कभी मै बाहर रही या कभी मेरे एग्जाम्स रहे। बीमारी तुझे तो छू लेती है पर बीमारी तेरे और घर के काम के बीच कभी नहीं आई।कैसे कर लेती हो मां तुम ये सब।

तुम हमेशा ध्यान रखती हो कि किसीकी क्या जरूरत है।मुझे थोड़ा सा भी कफ़ होता है तो एक दम गिना देती हो कि कितने दिन हो गए तुमने च्यवनप्राश नहीं खाया,दूध नहीं पिया।पर मां तुझे महीनों हो जाते है ग्वारपाठे का जूस पिए क्योंकि उतना भी समय नहीं होता तुम्हारे पास,तुम करेले का जूस इसलिए नहीं पी पाती क्योंकि शाम का खाना बनाने का समय हो चुका होता है।पर इन चीज़ों का कोई हिसाब कोई नहीं रखता कि तुम हमारे लिए क्या छोड़ रही हो।तुम सबका ध्यान रखती हो,आधी सोई, आधी जागी रहती हो पर चलती  रहती हो।सबकी जरूरतें तुम्हारी उंगलियों पर है पर तुमने मान लिया है कि तुम्हारी जरूरतें वो ही है जो हमें पता है।

पर मां आज जब ये सब लिख रही हूं तो कुछ बातें बार बार मेरे मन में मुझे कचोट रही है।कितना अच्छा होता ना मां कि तू भी सब से हक से कहती कि मेरी ये पसंद-नापसंद है,मुझे ऐसा नहीं ऐसा चाहिए और बाकी लोग उस सब के लिए प्रयास करते,कितना अच्छा होता तू भी हम सबकी तरह सुबह और शाम की सैर पर निकल जाती, तू भी पापा की तरह किसी लाफिंग क्लब का हिस्सा होती या फिर महिलाओं की ही किसी किटी का।हम सब मिल बांट कर घर का काम करते और अपने अपने हिस्से का समय जीते।

मां मुझे इंतज़ार रहेगा उस दिन का जब तू भी कहेगी कि आज मेरी सारी फ्रेंड्स घर आ रही हैं,  बेटा तू देख लेना और उस दिन का भी जब आप मुझे कोई किताब पढ़ती नजर आओगी।कितना अरसा हो गया मां तुमने अपने पुराने अलबम नहीं खोले है।जरा आज उन्हें खोल लेना, देखना तुम कैसी थी। बस अब ये मत कहना मां कि बेटा तुम्हारी सफलता ही मेरी सफलता है और तुम्हारी सार्थकता ही मेरी सार्थकता।
नहीं मां।
तुम्हारी जिन्दगी तुम्हारी ही है, उसे तुम्हे ही जीना है।उसे हम नहीं जी सकते।अपनी सार्थकता को मां तुझे अपनी ज़िन्दगी से ही पाना है ।
मां जी ले अब भी जी ले तू अपनी ज़िंदगी।
आपकी
ज्योति।

Friday, 8 February 2019

४ फरवरी ,
४ फरवरी वो दिन जो हम सभी सावित्री की लड़कियों के ज़हन में इस तरह रचा बसा हैं जैसे हमारे माता पिता के साथ पहली बार थामी गयी उनकी ऊँगली,जैसे बचपन की किसी दोस्त के साथ खेला गया पहला खेल ,जैसे वो पेड़ जिस पर कभी हमने झूला झूला होता है और जैसे जीवन के पहले अध्यापक की पहली प्रशंसा .कुछ यादें केवल जुगाली के लिए होती हैं तो कुछ ऐसी होती हैं, जो स्वयं ही जीवन बन जाती हैं,,सावित्री की भी एक एक याद बस इसी तरह ज़हन में बस चुकी हैं, जैसे बस कल ही तो स्कूल से निकले थे.कल ४ फरवरी को हमारे स्कूल का १०३ वा जन्मदिन था और हमारे लिए ऐसा जैसे हम सब का भी जन्मदिन हो .वास्तव में सावित्री में पढना पुनर्जन्म लेने जैसा ही होता था.....अनगढ़ को गढ़के ,आकर देकर,प्राणमय बनाकर,ये आपको अपने सबसे श्रेष्ठ स्वरुप में ले आता हैं.
कल भाग्यवश मुझे अपने विद्यालय जाने का मौका मिला जो मेरे जीवन का अद्भुत अनुभव बन गया.अपने ही विद्यालय में उसके स्थापना दिवस के मौके पर जाना और आतिथ्य ग्रहण करना .आज सुबह से ही यादों की जुगाली मेरे ज़ेहन में कुछ तेज गति से चल रही थी ,वो चंपा का पेड़,माँ सरस्वती जी की प्रतिमा,ऊपर वाला हॉल नुमा बैडमिंटन कोर्ट,भावना ,टीना,वंदना के साथ की कैंटीन की मस्तियाँ,11th क्लास का साइंस,आर्ट्स,कॉमर्स का फर्जी comparison,क्लास में मेहंदी लगवाते पकड़ा जाना,फेयरवेल की साड़ी की महीनों से तैयारी,मित्तल मेम की डांट,प्यार,बोर्ड का तनाव सब कुछ .
पर ये जुगाली स्कूल पहुँचने पर यादों के दरिया में बदल गयी ,मेरी भावनाएं स्म्रतियों के ज्वार भाटे में गोते खाने लगी ,मन कर रहा था एक एक दीवार,पेड़,रेलिंग,नोटिस बोर्ड सब को छू छू के देखूं और पूछूं की कैसा हैं वो.पूरे 11th~12th में नोटिस बोर्ड को सजाने का ड्यूटी मेरी ही थी और आज भी वो वैसा ही सजा धजा अपने पूर्ण यौवन पर मिला.वैसी ही क्लासेज ,वैसा ही गार्डन,,वैसा ही सब कुछ.बस नहीं थी तो नीना थककर मेम की डांट,मधु माथुर मेम का प्यार और किरण मित्तल मेम की नसीहतें.
स्कूल के बच्चों ,वर्तमान अध्यापिकाओं से मिलकर कल अलौकिक अनुभव हुआ.प्राचार्य श्रीमती लीलावती जी से मिलकर ये सुखद अहसास हुआ की मेरे स्कूल की कमान सही हाथों में हैं.लीलावती जी खुद भी सावित्री की ही छात्र हैं सो स्कूल के लिए उनका भी प्रेम देखते ही बनता था .उनके द्वारा बहुत ही ग्रहणीय प्रस्ताव दिया गया की पूर्व में मौजूद alumini को पुनर्जीवित किया जाये जो नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणा बने.वास्तव में यह बहुत ही उत्तम विचार लगा मुझे क्यूंकि हम सभी किसी न किसी तरह से अपने प्यारे विद्यालय के विकास में योगदान देना चाहते हैं पर सही प्लेटफार्म नही मिल पाता .वास्तव में फेसबुक का ये ग्रुप ही जिसने हम सब को जोड़ा हैं, को ही संस्थागत alumini का रूप दिया जा सकता हैं.कुछ क्लिक्स भी आप सब के लिए लेने की कोशिश की ताकि हम सब की यादें ताज़ा हो जाये .आप सभी के सुझाव आमंत्रित है की कैसे हमारे प्यारे स्कूल को पहले से भी अधिक ऊँचाई पर पहुँचाया जा सकता है और छात्राओं का चहुंमुखी विकास सुनिश्चित किया जा सकता है.यहाँ प्राचार्य लीलामणि गुप्ता जी के भी no share कर रही हूँ ,आप सभी उनसे भी सीधे बात कर सकते हैं,उनके no हैं ~9829948803

Sunday, 14 October 2018

अपने अंतस की यात्रा- रुद्रनाथ ट्रेक (The Journey of Self-RUDRANATH TREK)

समुद्र से लगभग 3600 मीटर ऊंचाई पर दूर तक फैली पर्वत श्रंखलाएं, सामने दिखती हिमालय की बर्फीली चोटियां,आसमान से होती हल्की-हल्की अमृत वर्षा और सामने बना इंद्रधनुष, दूर तक फैले बुरांश, मोरू के कम ऊंचाई के पेड़, चारों तरफ फैला हरी घास  का विशाल मैदान ,नीले, लाल और गहरे पीले अनाम फूलों के पौधे ,बादलों से बात करती मंदिर की घंटिया, तो कभी बाएं कभी दाएं  से बहते छोटे छोटे झरने।

इस दृश्य के बारे में सोचते ही रोमांच पैदा होता है पर अगर यह आंखों के ठीक सामने हो तो कैसा महसूस होगा।यह वो क्षण होता है जब आपका इंद्रिय महसूसना रोमांच की अनुभूति से आगे निकल चुका होता है,जब कुछ क्षणों के लिए आप अपने आप से एकाकार होते हैं और यह मन प्रकृति के सृजक के प्रति श्रद्धा से झुक जाता है।यही वह क्षण होते हैं जब मन थिर होता है, जब लौ इस संसार के डोलावन से परे स्थिर हो जाती हैं और आप निहारते रह जाते हैं उस सौंदर्य को उस प्रकृति को।ऐसे बहुत सारे अनुभव हमें हुए जब हम मरुधरा की बेटियां चल पड़ी थी हिमाल की गोद में ।एक गहरी शांति,सात्विक और ईश्वरीय सौंदर्य का अनुभव करने। देवभूमि के नीर से, उसकी पावन रज से साक्षात्कार करने, उसी में एकाकार हो जाने के लिए।आइए आपको भी ले चलते हैं रौनक, ज्योति,प्रभा और रेणुका के इस सफर पर,जहां हिमाल ने हमें अपनी ही बेटी की तरह गले लगाया और न केवल हमारे हवासों को हज बख्शा पर हमारी रूह को भी रोशन कर दिया।

यह सफर शुरू होता है 14 सितंबर से, जब हम लोग उस शाम हरिद्वार पहुंचे और वहां से 1 घंटे का सफर तय करके ऋषिकेश।अगली सुबह की शुरुआत मां गंगा के घाट पर चाय पीने के साथ हुई।इस समय गंगा को निहारने का अपना आनंद था। सामने महादेव की विशाल प्रतिमा, उसके  पार्श्व में उगता सूरज, वर्षा के बाद तीव्र उफान से बहती मां गंगा, अंग प्रत्यंग को छू रही सुबह की हल्की हल्की समीर और चारों ओर फैली असीम शांति।

ऋषिकेश से हमें भारत के मिनी स्विट्ज़रलैंड कहलाने वाले स्थान चोप्टा पहुंचना था और अगले दिन से प्रारंभ होनी थी हमारी वास्तविक यात्रा। लगभग 9:00 बजे हम लोग चोप्टा के लिए रवाना हुए।रास्ते में जगह-जगह बहते झरने,लगातार साथ साथ चलती मां गंगा की धार ,नदी पर बने खूबसूरत पुल, साथ चलते बादल,देवप्रयाग,रुद्रप्रयाग में दिव्य नदियों के खूबसूरत मिलन बिंदुओं ने रुद्रनाथ पहुंचने की उत्कंठा इतनी तीव्र कर दी थी कि बार-बार यह लगता कि जब रास्ता इतना खूबसूरत है तो मंजिल कैसी होगी।।

आखिर सफर का दूसरा पड़ाव चोप्टा आ पहुंचा जिसके लिए जितना बताया गया था वह उससे कहीं अधिक खूबसूरत था।अगले दिन प्रारंभ हुई हमारी असली यात्रा।पंच केदार में से एक केदार श्री रूद्र नाथ जी की चढ़ाई।चोपटा से 35 किलोमीटर दूर है सगर गांव।श्री राम के वंशज राजा सगर के नाम पर बसा यह खूबसूरत गांव रुद्रनाथ ट्रेक के लिए बेस कैंप है। सुबह रास्ते में चोपटा से सगर के बीच बसे केदारनाथ वन्य जीव अभ्यारण्य में देवदार,बांज के पेड़ो से आती अनुगूंजो ने जल्द ही हमें ट्रेक के लिए मानसिक रूप से तैयार कर दिया था।सुबह लगभग नौ  बजे हमने ट्रेक प्रारंभ किया तो मन में सफर का रोमांच तो था ही पर यह डर भी था कि क्या हम इस यात्रा को पूरा कर पाएंगे क्योंकि यह ट्रैक पंच केदार में कठिनतम माना जाता है। फिलहाल पहला 1 किलोमीटर बहुत जोश से निकला।हालांकि खड़ी चढ़ाई थी पर हमारे जोश की हाइट उससे कहीं ज्यादा।यहां आया पहला पड़ाव चौड़ीदार जहां से सगर की खूबसूरती देखते ही बनती थी। दोनों तरफ सीड़ीदार खेत,बीच बीच में बनी गौशालाएं, पहाड़ पर बने छोटे छोटे घर और पीठ पर सल्टा बांधे चलती पहाड़ी औरतें। ट्रैक पर पहाड़ों के हमारे साथी थे गाइड देवेंद्र सिंह नेगी, हमारा पोर्टर आदित्य और विरेंदर। यह यात्रा कभी भी इतनी सरल, इतनी सुविधाजनक नहीं हो सकती थी जितनी इन तीनों के कारण बन पाई ।

अब हमारा अगला पड़ाव था पुंग बुग्याल।जैसे-जैसे हम पहाड़ चढ़ते गए हिमाल के रंग भी उसी तरीके से बदलते जा रहे थे।जहां सगर में हमें सीड़ीदार खेत मिले वहीं पुंग तक घना वन था।लम्बे देवदार, मोरू, ओक के पेड़ों की खूबसूरती देखते ही बनती थी। इस जंगल से आती पत्तियों और माटी की गंध ने अब तक भी ज़हन का साथ नहीं छोड़ा है।यह खुशबू अब तक भिगो रही है मेरी याद को भी,मेरे मन को भी। हरियाली की चादर ओढ़े पुंग एक  खूबसूरत जगह थी।चारों तरफ हरा चारागाह,दाएं दिखता विशाल झरना जो बरबस ही बाहुबली के झरने की याद दिलाता था। जब देवेंद्र से पूछा यह क्या है तो उसने बताया कि बस वही तो हमें चलना है।तो बस सेना चल पड़ी अपने अगले पड़ाव मौली खड़क की तरफ जो वहां से 3 घंटे दूर था।

आज का हमारा पढ़ाव पनार था जहां हमें रात्रि विश्राम कर अगले दिन रुद्रनाथ के लिए निकलना था। पनार तक के इस रास्ते में पुंग से लेकर मौली खड़क तक का यह रास्ता सर्वाधिक खूबसूरत था।दाएं साथ साथ चलता पहाड़ और बाए दिखती विशाल पर्वत  श्रंखलाए। पेड़ों की लंबाई अब कुछ कम हो चुकी थी,बाहुबली वाला झरना कभी कभी आंखों से ओझल हो जाता पर उसकी कल कल की आवाज लगातार पनार तक साथ चलती रही।बीच में बहुत से छोटे झरने आए जब हमें उन्हें लांग के आगे जाना पड़ा।एकदम सफेद और ठंडा पानी,पानी से दिखते चमकीले पत्थर और धीमी धीमी पड़ती बारिश की बुँदे ।यह सब दृश्य एक पेंटिंग की तरह अंकित हो गए हैं ह्रदय पटल पर।और ह्रदय भीग जाना चाहता है फिर से उस झरने में, उस कल कल में,उस ठंडक में और उन पेड़ों की गंध में।

अब हम पहुंचे मौली खड़क से लुइटी और लुइटी से पनार बुग्याल।मौली खड़क से पनार तक का यह रास्ता पूरे ट्रेक में कठिनतम था। एक दम सीधी  पहाड़ी जिसके गोल गोल रस्ते पर हम चढ़े जा रहे थे पर रास्ता था की ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा था|चढाई टांगो और फेफड़ो दोनों का इम्तिहान ले रही थी और आँखे  राह तकती आने वाले पड़ाव की| लुइटी से दो किलोमीटर पहले जो जगह आती है उसका नाम है चक्रगोना।और नाम के अनुरूप चक्रगोना ने जो चक्कर दिए वो जीवन भर याद रहेंगे। सामन्यतया हर पड़ाव पर बने छानिये आपको दूर से ही दिख जाते थे पर यहाँ एकदम खड़ी चढाई होने के कारण चक्रगोना की पीली टाट वाली झोपड़ी अचानक ही अवतरित हुई।यह अवतरण ऐसा था जैसे मरुस्थल में प्यासे को कोई चश्मा दिख जाये।यहाँ चाय पीकर हम चल पड़े लुइटी की तरफ जो जल्द ही आ गया पर असली  परीक्षा अब थी जब हमारे गाइड ने बिना पूछे ही हौले से  मुस्कराते हुए  बताया था कि बस, ये जो झंडा दिख रहा है वही पनार है और हम लोगों को झंडा देखने के लिए अपनी गर्दन को पीछे की तरफ ३० डिग्री झुकाना पड़ा था.शायद गाइड की मुस्कान का आकार और आँखों की चमक रस्ते की कठिनाई अनुसार बदलती रहती है.उस समय शाम के साढ़े पांच बज चुके थे और उस झंडे के दर्शन  के बाद गर्दन को सीधा करने की मेरी इच्छा समाप्त हो चुकी थी.पर लुइटी में चाय और कुछ फोटो सेशन के बाद मैंने उस दिव्य झण्डे को फिर से देखा और उस ओर चलना प्रारम्भ किया.सूरज धीरे धीरे अस्तांचल की ओर जा रहा था और पैर जवाब दे रहे थे.लुइटी से दिखता झंडा खड़ी पहाड़ी के कारण अब गायब हो चूका था .पर मंजिल तक पहुँचने का जोश और उत्साह अंत तक बना रहा.देवेन्दर की पूर्वोल्लिखित मुस्कान ने जो चुनौती हमारी तरफ उछाली थी उसका जवाब देना तो जरूरी था ना.तो बस पाँव वाले मन को समझाते  समझाते और आँखों से सामने बर्फीली पहड़ियों से हो रहे सूर्यास्त को देखते देखते ही पनार आ पहुँचा।3600मीटर ऊंचाई पर बसा यह बुग्याल पूरे ट्रेक में सुंदर तम जगह थी।उस समय अपनी आँखों पर बरबस ही विश्वास नहीं हुआ था कि इतनी सुंदर जगह भी कोई हो सकती है क्या।कठिनतम खड़े पहाड़ों के जिस रस्ते से गुजरकर हम यहाँ पहुंचे थे और अब जो आनंद हमें मिल रहा था शायद यह आनंद वहीँ होगा जो बच्चे के जन्म के समय पीड़ा से कराहती माँ को नवजात की पहली झलक देखने पर मिलता है. चारों तरफ फैला अल्पाइन चारागाह।दूर दिखते देवदार और बांज के पेड़, सर पर चलते बादल,सामने दिखती मां नंदा,त्रिशूल,हाथी- घोड़ा बर्फीली चोटियां। यह वह जगह थी जहां आपका कैमरा रुक ही नहीं सकता था। सुबह हमें खूबसूरत बर्फीली पहाड़ियों से सूर्योदय देखने का मौका मिला तो उससे एक रात पूर्व पूरा चांद।

अब समय आ गया था अपनी मंजिल की ओर चलने का।पहले दो किमी की चढ़ाई और फिर 6किमी का ढलान।पनार से पितृधार तक पहले दो किमी की चढ़ाई कठिन नही थी पर जोखिम भरी थी।एक तरफ पितृधार की पहाड़ी तो दूसरी तरफ मीलों लंबी खाई।तापमान बहुत कम होने के कारण घास और कुछ फूलों की झाड़ियो के अलावा कोई वनस्पति नहीं।हम खुशकिस्मत थे कि उस दिन आसमान साफ था और सूर्यदेव हम पर मेहरबान थे।पर जब भी एक आदित्य बादलों से लुक्का छिप्पी खेलता तो हमें दूसरे आदित्य की याद आती जिसके पास हमारा सामान होता ताकि कुछ गरम पहना जा सके।पर आदि और आदि की जुगलबंदी ने बहुत सरलता से हमें पंचगंगा तक पहुंचा दिया।

अब बस मंजिल कुछ ही किमी दूर थी।देवदर्शिनी से जैसे ही भगवान श्री रूद्रनाथ मंदिर के दर्शन हुए मन प्रफुल्लित हो गया।इस पूरे रास्ते बुरांश के कम ऊंचाई के पेड़ भी हमारे साथ चलते रहे।फर,स्प्रूस,बांज,ओक के पेड़ और अलग-अलग रंगों के फूल  हमारा  स्वागत कर रहे थे।

शीघ्र ही रुद्रनाथ आ पहुंचा।एक छोटा मंदिर,कुछ छितरे हुए छानिए,जिनमे से एक उस दिन के लिए हमारा पनाहगार भी था।अत्यधिक ऊंचाई के कारण तापमान 5°से ज्यादा नही था पर  यहां चारों ओर फैली शांति और सौंदर्य का वर्णन शब्दातीत है।प्राचीन भारतीय स्थापत्य से बना एक छोटा मंदिर, चारों तरफ फैले छोटे-छोटे कुंड, सामने आंखों के सामने तैरते कपासी बादल, हल्की हल्की बूंदाबांदी और एक छोटा बना इंद्रधनुष। वहां व्याप्त असीम शांति और सात्विकता आपके मन की हर गूंज-अनुगूंज को थिर करने के लिए पर्याप्त थी। कम तापमान  की ठिठुरन के बीच  महादेव के दर्शन दिव्य थे।आरती का समय सात बजे का था,जब हमने फिर से भगवान रुद्रनाथ के दर्शन किए।

अगले दिन पुनः प्रातः कालीन दर्शन कर हम सात  बजे वहां से विदा हुए।आज हमने यहां निर्णय लिया था कि हम ढलान एक ही दिन में पूरा करेंगे और सगर पहुंचेंगे,इसीलिए हम चारों ने प्रारंभ से ही अपनी गति बनाए रखी जिससे हम दोपहर बारह  बजे तक पनार पहुंच चुके थे और मेरे अलावा 6:00 बजे तक सब लोग सगर।मेरे लिए आखिर का 1 किलोमीटर का ढलान उतरना बहुत कठिन रहा पर फिर भी अपने साथियों को ज्यादा इंतजार ना कराते हुए मैं 6:30 तक सगर पहुंची।
इस तरह मरुधरा की बेटियां लौट चुकी थी हिमाल से साक्षात्कार कर,
हिमाल को गले लगा कर,
अपनी यादों में जंगल की खुशबू छिपाएं,
कल कल की आवाज को कैद किए,
चेहरे पर बादलों का स्पर्श लिए,
और आंखों में,
बन, बूंद, फूल, रंग के बेहतरीन दृश्य लिए
और सबसे अधिक अपने अंतर तम पर रूहानी छाप लिए ।।।
एक साहसिक रोमांचक यात्रा जो यात्रा के दौरान आध्यात्मिक यात्रा में बदल चुकी थी। पहाड़ ने झोली भर के अनुभव दिया है।इसने अपने comfort zone से बाहर आना भी सिखाया है तो अपनी क्षमताओं से या कहें कि कल्पना से भी अधिक पा जाने का रोमांच भी  दिया है।यह हमें अपनी आंतरिक यात्रा पर भी ले गया तो न्यूनतम सुविधाओं के साथ रहने का अनुभव भी दे गया।पहाड़ जितने खूबसूरत हैं वहां रहना उतना ही चुनौतीपूर्ण पर शायद यही चुनौतियां हमें थोड़ा और इंसान बनाती हैं।इंसानियत जो हमें वहां बसे हर पहाड़ी में दिखी। सगर के रामजी बिष्ट में भी तो पनार के दिलबर सिंह भंडारी में भी। सबसे अधिक तो हमारे गाइड देवेंद्र सिंह नेगी का व्यवहार तो दिल को छू गया। यह शोध का विषय है क्यों साधन हीनता हमें सरलता की ओर ले जाती हैं और साधन संपन्नता जटिलता की ओर।यह यात्रा जीवन का एक यादगार अनुभव बन चुकी है, जिसमें  कुछ धारणाएं टूटी तो अहंकार विगलित हो गए।इंसानियत अपने सात्विक रूप में हमारे सम्मुख आ खड़ी हुई तो अनंत से एका हो सका। कुदरत ऐसे  सफर  बार बार बख्शे, बस ऐसी दुआ है।
आमीन।।














Sunday, 3 June 2018

लाल हरे
पीले रंगों भीगी
चूनर को धूप में सुखाएंगे,
तुम मन के
पंख खोल उड़ना
हम मन के पंख को छुपाएंगे, मन की हर
बंधी गाँठ खोलना
उस दिन तो दर्पण हो जाना।
बस एक ऐसा ही नजारा था नगर निगम अजमेर द्वारा आयोजित रंग लहर फेस वन एवं फेस टू का ।हर कलाकार वह बच्चा हो या प्रोफेशनल उस दिन अपनी बंधी गांठे खोलकर अपने सृजन के उच्चतम शिखर पर जाना चाहता था।उसके अंतरतम की सृजनात्मकता उस दिन दर्पण बन गई थी और हम आयोजकों की दृष्टा।इस रंग लहर ने जो सूक्ष्मआभास दिया वह अप्रतिम था।भिगो दिया दो अलग-अलग चरणों में हुए आयोजन ने लाल ,पीले ,हरे, हर रंग से,रूहानियत से।सृजन कैसा भी हो, वह मानस गढ़ना हो या चित्रकारी करना वह हमेशा पूर्णता का अहसास देता है,भिगो देता है रुहानियत से।

सृजन करना ऐसा होता है जैसे स्वयं माँ बनना और उसे करते हुए देखना ऐसा होता है जैसे पिता बन अपनी अर्धांगिनी को माँ बनते हुए देखना।कुछ ऐसा ही अहसास दिया मुझे रंग लहर के दोनों आयोजनों ने। पहले आयोजन में मैं 'दृष्टा' बनी तो दूसरे में स्वयं 'दृश्य' ।आनंद एवं श्रुति की प्रेरणा एवं सहभागिता से दूसरे फेस में हमने मिलकर पेंटिंग बनाई और सृजन का मातृत्व सुख महसूस किया। बहुत दिनों से मैं अपने इन सभी एहसासों को दर्ज कर देना चाहती थी पर कलम और मेरा समय साथ गुजारना मुश्किल सा हो चला है ।दोनों दिन बहुत से एहसास थे, आज शायद यहां कुछ ही दर्ज कर पाऊं फिर भी उन्हें लिखते हुए ही जादूई अहसास हो रहा है वैसा ही जादू जैसा इन पेंटिंग्स ने इस शहर की दीवारों पर किया है।
पहले फेस को जब हम प्लान कर रहे थे तब मैं बहुत डरी हुई थी कि क्या हम सफल होंगे पर पूरे दिल से किया गया प्रयास सफल हुआ, मुझे विश्वास नहीं था कि यह प्रयास इस अद्भुत घटना को जन्म देगा।

यहां पेंटिंग बनना और शहर का सौंदर्यीकरण होना ही महत्वपूर्ण नहीं है इस संपूर्ण आयोजन ने जिस आंदोलन का रूप लिया है वह अतुलनीय है जो संदेश सभी कलाकारों और बच्चों ने दिया है उसे केवल चित्रकारी कहकर छोटा नहीं किया जा सकता!
अमीर खुसरो कह गए हैं
'रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ
जिसके कपड़े रंग दिए सो धन धन वाके भाग
फेस वन की थीम को हमने बालिका विद्यालय देखते हुए शेड्स ऑफ विमेन रखा था पर नारी जीवन के इतने चित्र इस रंगलहर में देखने को मिलेंगे वह कल्पना से परे था।मातृत्व से लेकर आधुनिक नारी तक हर आयाम को इसमें दिखाया गया जिस प्रकार छात्रों और फ्रीलांसर ने मिलकर एक मेले जैसा माहौल वहां बनाया, कम्युनिटी पार्टिसिपेशन का इससे बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता।250 से अधिक प्रतिभागी अपने शहर के लिए जिस शिद्दत से जुड़े वह अद्भुत था ,उसे देखना भी और महसूस करना भी।

फेस टू का आयोजन फेस वन से भी ज्यादा प्रभावी रहा यह पहले से बड़ा आयोजन बना पहले से अधिक प्रतिभागी जुड़े और उसने अधिक प्रखर संदेश छोड़ा।भारत के ऐतिहासिक पुरुषों के योगदान को दर्शाने से लेकर देश के आधुनिक विकास यात्रा ,चंद्रयान,कृषि विकास,डिजिटल इंडिया, क्लीन एनर्जी, सांप्रदायिक सद्भाव, हर विषय पर पेंटिंग बनाई गई।भारत की गंगा जमुनी तहजीब का हर रंग इन दीवारों पर दिख रहा था और अंदर ही अंदर यह मान बढ़ा रहा था कि मैं हिंदुस्तानी हूं।जब सारे पैनल बन जाने के बाद मैं देख रही थी तो मैं न केवल इन के सौंदर्य पर मंत्रमुग्ध थी पर आश्चर्यचकित थी यह सोच कर कि इन कलाकारों और बच्चों ने क्या अद्भुत कर दिया है।अनजाने में ही यह आयोजन बड़े सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बन गया है।

दीवारों पर एहसासों की, मोहब्बत की और विकास की इस यात्रा को लिखने में नगर निगम प्रशासन को और निजी रूप से मुझे बहुत सारे लोगों ने सहयोग दिया जिसमें ख्यातनाम फोटोग्राफर पृथ्वीराज फाउंडेशन से जुड़े दीपक शर्मा जी तथा लोक कला संस्थान के संजय सेठी जी का योगदान अमूल्य है। कमिश्नर सरका यहां यह idea की पार्टिसिपेंट्स को उन्हीं की पेंटिंग का फोटो फ्रेम दिया जाए वह भी बहुत पसंद किया गया। पहले सम्मान समारोह में कलाकारों का उत्साह देखने लायक था। मेयर सर का दोनों आयोजनों में विशेष आशीर्वाद रहा और वे बराबर सहभागी रहे।कलेक्टर सर के अमूल्य सुझाव जिन पर हमने फेस 2 में अमल भी किया वह अप्रतिम है।कुछ कलाकार भी हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर आयोजन में रहे जैसे प्रकाश नागौरा जी एवं उनके पुत्र, आकांक्षा शर्मा ,अलका शर्मा, सविता गर्ग ,सविता आर्य रितु शिल्पी ,नितिन एंड टीम, शेफाली जैन ।यह लिस्ट बहुत बड़ी है और सभी का योगदान अमूल्य है
वास्तव में इस जिंदा शहर की जिंदगानी ने सीना चौड़ा कर दिया है कि यह अहसास देकर कि मैं इसी शहर की हूं जहां एक ही आवाज पर इतने लोग जुड़ जाते हैं।साधुवाद सभी प्रतिभागियों को।जल्द ही नगर निगम कला कुंभ करने जा रहा है आशा है इसमें भी आपका सहयोग इसी तरह से मिलेगा।









सात दिन जब मैं मेरे साथ थी।
SPIC MACAY के प्रतिवर्ष होने वाले convention में कुछ साथी नियमित रूप से भाग लेते रहे हैं, मेरे विचार भी प्रतिवर्ष साम्यता महसूस करते थे की मुझे भी जाना है पर इस वर्ष सौभाग्य मिला जब सब कुछ अनुकूल था boss, leave balance और पारिवारिक-व्यक्तिगत परिस्थितियां भी।
IIT DELHI के campus में बीते सात दिन मेरे लिये किसी स्वप्न से कम नहीं थे,आश्रम जैसी दिनचर्या और संगीत एवं अध्यात्मिकता का अलौकिक अनुभव। शब्दों से परे भीतर की यात्रा।Image may contain: 6 people, people smiling, people standing and outdoor
गुरुवर् श्री प्रेम सागर जी से नाद योग की शिक्षा प्रातः 4 बजे से प्रारम्भ होकर यह यात्रा बढ़ती थी ध्रुपद की कक्षा तक।उस्ताद पद्म श्री फयाज़ुद्दीन डागर के  सानिध्य में  ध्रुपद सीखना........
यह अनुभव केवल spic macay का मंच ही दे सकता है।सुर,ताल ,आलाप जो आपको आधायात्मिक यात्रा पर ले जाए।
Spic macay के फाउंडर श्री किरण सेठ जी को सुनने से प्रारंभ हुए sessions निरंतर मुझे भीतर ही भीतर और जोड़ते गए।गिरिजा देवी,बेगम परवीना सुल्ताना और गुरबाणी गायक श्री अलंकार सिंह को सुनना यूँ था कि बुद्धि ,मन और आत्मा के सब भेद समाप्त हो गए हो,विचार शून्य...बस वह संगीत और आप स्वयं अपने ही साथ।विद्वान पद्म भूषण T N KRISHNAN के वायलिन की आवाज़ रूह की आवाज़ से कम न थी।उर्दू अदब में पढ़ा था "रूह की सदा"पर उसे महसूस किया इस CONCERT में।श्री भजन सोपोरी का संतूर वादन वह अनुभव था जिसने रोम खड़े कर दिए तो वारसी ब्रदर्स की कव्वाली उस गंगा जमुनी संस्कृति के उस किनारे ले गयी जो आज हमसे कुछ छूटती जा रही है।
मुझे अपने इंटेंसिव के साथ अलग अलग इंटेंसिव की classes में जाने का भी मौका मिला जो अलौकिक अनुभव था चाहे वो मधुबनी पेंटिंग की क्लास हो या फिर फड़ पेंटिंग की।तेलंगाना की चेरिल लोक कला हो या फिर राजस्थान की पिछवाई।रामसिंह जी की नया थिएटर की कक्षाओं का अपना आनंद था तो जैशे ला की बुद्धिज़्म की कक्षाओं का अपना।
भारत की विविध लोककलाओं ,संगीत ,नाट्यविधा,अध्यात्म के परिचय के साथ ही ये सात दिन भारत को समझने में भी बहुत सार्थक रहे,शायद ही कोई राज्य हो जिसके प्रतिनिधि इस कन्वेंशन में नही हो।सुदूर केरल और कोयम्बटूर से लेकर पिथोरागढ़,हिमाचल के साथियों से मिलना सचमुच स्वर्गीय अनुभव रहा।भारत राज्यों,गाँवों का समुच्चय भर नही पर हम सब के विभिन्न विचारों,आस्थाओं ,कलाओं,लोक संस्कृतियों और जीवन मूल्यों का समुच्चय है और इसका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ इस कंवेंशन में।
अपने जीवन की उठापटक से दूर मुझे इस आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाने के लिए यह आंदोलन सच में साधुवाद का पात्र है।
अपने आनंदातिरेक के इन क्षणों की प्रेरणा का माध्यम spic macay आंदोलन यूँ ही निरंतर बढ़ता रहे और volunteership की भावना इसी ऊर्जा के साथ जिन्दा रहे इन्ही शुभकामनाओं के साथ।
ज्योति ककवानीImage may contain: 2 people, people standing
अजमेर(राजस्थान)।