Saturday, 28 September 2019

सेनेटरी नेपकिन क्या अंतिम समाधान है।

उदयपुर में चलाए जा रहे चुप्पी तोड़ो अभियान को तीन माह से अधिक गुजर चुके है ,इसके पूर्व इससे कुछ भिन्न मॉडल पर यह अजमेर में भी चार ब्लॉक्स में चलाया गया था,मूलरूप से यह अभियान किशोरवय छात्राओं एवं उनकी माताओं से माहवारी से जुड़े विभिन्न संदर्भों पर बातचीत एवं उन्हें सही जानकारी पहुंचाए जाने के संबंध में है।हमारा प्रयास रहता है कि इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा चुप्पी टूटे और परिवार में खुलकर बात हो ताकि महिलाएं माहवारी में स्वच्छ साधनों का प्रयोग कर सकें और साथ ही माहवारी से संबंधित स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर खुल कर बात कर सकें।

इस विषय पर काम करने के दौरान ही मेरी भी बहुत सारी अवधारणाओं में सुधार हुआ है और मेरे ज्ञान में भी नए तथ्य जुड़े है। मैं माहवारी स्वच्छता से मतलब केवल सैनिटरी नैपकिन के उपयोग से समझती थी और इस पर बात करने से  मतलब था पानी और स्वच्छता की उपलब्धता और जानकारी पर बात करना।पर धीरे धीरे मेरे ग्रामीण क्षेत्रों के प्रत्यक्ष अनुभवों ने मेरी अवधारणा को बदल दिया।यहां मै एक लड़की सीता की बात करना चाहूंगी जो गोगुंदा ब्लॉक की रहने वाली है।

सीता तीन वर्ष पूर्व नवी में फेल होने की वजह से पढ़ाई छोड़ चुकी है और अब घर में छोटा मोटा सिलाई का काम करती है।उसके पिताजी उसी गांव में काम कर रहे एक ngo में काम करते हैं और भाई सूरत में नौकरी करता है। अजमेर से लेकर जब से मैं इस  चुप्पी तोड़ो अभियान से जुड़ी हूं तब से मैं जब भी किसी किशोरी से मिलती हूं तो उससे माहवारी संबंधी सवाल तो जरूर पूछती हूं जैसे वह उन दिनों में क्या उपयोग में लेती है,उसे कैसे धोती है या फेंकती है और उसे इससे संबंधित कोई बीमारी तो नहीं है।
मैंने जब ये सभी सवाल सीता से पूछे तो उसने बताया कि पहले तो वो स्कूल से मिले पैड्स ही उपयोग में लेती थी पर क्यूंकि अब उसने स्कूल जाना छोड़ दिया है इसलिए वह पुराना कपड़ा उपयोग में लेती है।

मैंने जब उससे पूछा कि उसे क्या बेहतर लगा तो बोली कि कपड़ा बेहतर है क्यूंकि मैं इसे कभी भी घर पर ही धोकर सुखा सकती हूं और फिर से उपयोग में ले लेती हूं।वहीं पैड को उपयोग में लेने के बाद मुझे हमेशा ये चिंता रहती थी कि इन्हें कहां फेंकू।इसके लिए मुझे हमेशा इंतज़ार करना पड़ता था जब मैं 5 दिन के पैड इकट्ठे करके या तो खेत में खड्डा खोदकर दबा देती थी या मटके में जला देती थी,पर इन सारे दिनों तक उनके निस्तारण तक उन्हें घर में रखना तनाव भरा ही होता था।पर जब मैंने उसे कहा कि शहरों में भी तो महिलाएं उसका निस्तारण करती है तो बोलने लगी कि मैडम जी कहां यह गांव और कहां शहर। ना तो हमारे यहां कोई कचरा लेने आता है जिन्हे थैली में बांधकर दे दें और उसका वो जो करे वो राम जाने और ना ही हमारे यहां आधुनिक फ्लश है कि उसमें पैड को पानी में बहा दें जो सीधे जाकर सीवर के पाइप में ही पड़े,ना हमें दिखे ना हमारे घर वालों को।हमारे लिए तो हम भले और हमारा कपड़ा भला।

           फिर मैंने उसे टटोलते हुए कहा कि अगर स्कूल की तरह ही सरकार अब भी तुम्हे पैड मुफ्त दे तो तुम पैड का उपयोग करोगी तो बोली नहीं,नहीं करूंगी क्यूंकि पहले जैसे ही मैं सयानी हुई थी स्कूल में ही पैड मिलने लगे तो कभी कपड़ा कैसा होता है पता नहीं लगा। पैड उपयोग में तो बहुत अच्छा था पर उपयोग करने के बाद उसका क्या करें यह बहुत तनाव जनक था।आज कम से कम कपड़ा उपयोग करने से मैं स्वतंत्र तो हूं।

   अब फिर मैंने उससे पूछा कि कपड़ा तो कहते है स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित नहीं है, टीवी पर देखा नहीं है तुमने कि कपड़े से बहुत बीमारियां फैलती हैं।और फिर तू कौनसा उसे अच्छे से धोती होगी और धूप में सुखाती होगी?

            पर मेरा यह प्रश्न पूछना था कि सीता का चेहरा गुस्से से तमतमा गया,कहने लगी कि क्या मैडम जी आप भी वैसी ही बात करने लगे जैसे कम्पनी वाले करते हैं।पहली बात तो अगर कपड़े से बीमारियां ही फैलती होती तो मैं जो पैंटी रोज पहनती हूं उससे भी बीमारी होनी चाहिए थी,मैंने तो कभी नहीं सुना कि पैंटी पहनने से कोई औरत बीमार हो रही है।ये बात और है कि पैंटी को भी अगर साबुन से धोकर धूप में नहीं सुखाएंगे तो वो भी नई नई बीमारियां ही फैलाएगी। हमें तो आशा बहनजी ने पहले ही बता दिया था कि कपड़ा वापरने में कोई नुकसान नहीं है बशर्ते कि उसे अच्छे से धोया जाए और धूप में सुखाया जाए।

और आप ही बताओ हम इस छपरेले में रहते है,कहां से ये महंगे पैड खरीदेंगे और वापरेंगे,जिनको उपयोग में लाने के बाद भी हजार संकट।जब तक उसे मैं जला या दबा नहीं दूं लगातार चिंता तो बनी ही रहती है।और आपको पता नहीं है जो लड़कियां अभी स्कूल में पढ़ रही है वो तो इसे ना गाड़ रही हैं और ना ही जला रही हैं वो सीधे हमारे गांव के तालाब में डाल देती है।अब तो उस तालाब में पैर भी डालने का मन नहीं करता।

       पर अभी भी सीता के जवाब सुनकर मेरा अहम शांत नहीं हुआ था,इतनी साधारण लड़की और इतने असाधारण तर्क,ये कैसे संभव था।

       मै मन ही मन सोच रही थी कि ये बित्ती सी सीता कह तो सही रही है। गांवो में संक्रमण की कोई बड़े स्तर पर समस्या हो ऐसा कम ही दिखता है,कोई समस्या अगर दिखती भी है तो वो खून की कमी की समस्या है जिसका कारण गरीबी और कुपोषण है ना कि कोई संक्रमण।

सीता के साथ इसी वार्तालाप ने मुझे एक हिंदी दैनिक में छपे सैनिटरी नैपकिन के सकारात्मक प्रभावों की वास्तविकता पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। इस दौरान मैंने इस विषय पर अलग अलग विशेषज्ञों की बहुत सारी रिपोर्ट भी पढ़ी और यथा संभव बहुत सारे gynec डॉक्टर्स से भी बात की और भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए डाटा का भी अध्ययन किया।

यह विषय वास्तव में उतना सरल नहीं है जितना यह प्रकट तया दिखता है।माहवारी स्वच्छता का यह सरलतम रूप है कि हम सैनिटरी नेपकिन के उपयोग को बढ़ावा दे।पर वास्तव में हम यहां समस्या को दूर नहीं कर रहे अप्रत्यक्ष रूप से एक नई समस्या उत्पन्न भी कर रहे हैं।

     वर्तमान में इस क्षेत्र में कार्यरत अधिकांश संस्थाएं,कुछ हद तक सरकारों ने भी अपना कार्यक्षेत्र केवल विद्यालय एवं छात्राओं तक ही सीमित रखा है ।यहां विषय क्षेत्र भी इतना ही लिया गया है कि स्वच्छता मतलब सैनिटरी पैड का उपयोग करना।जबकि सीता जैसे उदाहरणों से स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रों में एक बड़ी आबादी विद्यालयी शिक्षा से छूट गई है या बाहर है।भारत में इस समय लगभग 355 मिलियन आबादी उन महिलाओं एवं लड़कियों की है जिन्हे माहवारी आती है।राष्ट्रीय परिवार स्वासथ्य सर्वे 2015-16  कहता है कि आज भी भारत की 71% लड़कियां ऐसी है जिन्हे पहली बार माहवारी आने से पहले यह पता नहीं होता कि ये क्या होता है और क्यूं होता है।इससे जुड़े हुए अंधविशवासों के कारण ही आज भी इसे महिलाओं के लिए अभिशाप ही माना जाता है।भारत की इसी आबादी का लगभग 45% महिलाएं माहवारी के दिनों में उपलब्ध घरेलू सामग्री पुराने कपड़े वगैरह का उपयोग करती हैं।शहरी इलाकों को छोड़ दे तो ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश स्कूल जाने वाली छात्राएं ही सेनेटरी नेपकिन का उपयोग कर पा रही हैं बाकी महिलाओं के लिए ये प्रोडक्ट्स उनकी पहुंच से बाहर है।ना तो ये प्रोडक्ट्स ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध होते हैं और ना ही सस्ते कि महिलाएं इन्हें निश्चिंत होकर खरीद पाए।हमारा सामाजिक ढांचा भी ऐसा है कि महिलाओ के लिए  गांवों में दुकान से जाकर खरीदना और फिर उसका निस्तारण करना ये दोनों ही दुष्कर कार्य है।

       यहां मैं यह विशेष रूप से उल्लेखित करना चाहूंगी कि सेनेटरी नेपकिन के भी अपने नुकसान है।इस समय पूरे विश्व में एक रिवर्स कैंपेन चल रहा है जो फिर से हमारे परंपरागत तरीकों का प्रचार कर रहा है।भारत में भी बहुत सारी संस्थाएं मिलकर ग्रीन द रेड अभियान चला रही हैं।

वास्तव में तकनीक के नए नए आविष्कारों के साथ ही सैनिटरी नेपकिन भी निरंतर आधुनिक होता गया है।अब इसमें प्राकृतिक सोखता की जगह फाइबर शीट और जेल का उपयोग होने लगा है ये दोनों ही चीजें महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही घातक है।पैड को सफेद करने के लिए डाइऑक्सिन नामक ब्लीच का उपयोग किया जाता है जो अपने आप में कैंसर का बड़ा कारण है।एक महिला अपने पूरे जीवन काल में 11000 से 17000 पैड का उपयोग करती है और हर माह इसके संपर्क में आती है।इसी प्रकार जो सिल्वर लाइनिंग दाग से बचने के लिए लगाई जाती है वह अपने आप में बैक्टीरिया और फंगस को बढ़ाती है।यदि पैड को तीन से चार घंटे में नहीं बदला जाए तो यह बहुत बड़े इंफेक्शन का कारण हो सकता है।साथ ही जो जेल सोखता के रूप में पैड में डाला जाता है वह पॉलिमर है जो कि पेट्रोलियम का बाय प्रोडक्ट है यह भी एलर्जी और अन्य संक्रमण को बढ़ावा देता है।

अब अगर हम सैनिटरी नैपकिन के पर्यावरण पर प्रभावों कि बात करें तो वे असंख्य है।आज भारत में लगभग 57% महिलाएं सैनिटरी नैपकिन का उपयोग कर रही है जिससे लगभग हर वर्ष 12 बिलियन टॅन कचरा पैदा हो रहा है।क्यूंकि इसके निस्तारण का अभी तक कोई भी सही और सुलभ माध्यम प्राप्त नहीं हुआ है इसलिए या तो इसे जला दिया जाता है या गाड़ दिया जाता है। इन दोनों ही तरीकों से  यह मिट्टी या फिर हवा को प्रदूषित करता है और यह प्रदूषक पुनः हमारी खाद्य श्रृंखला में शामिल हो जाते है।कुछ महिलाएं पैड को फ्लश में भी बहा देती है जहां यह सीवर लाइन को ब्लॉक कर देता है और अंतिम रूप से सफाई कर्मियों के स्वास्थ्य के लिए घातक बनता है।एक सैनिटरी नैपकिन को वातावरण में स्वतः निस्तारित होने में 800 वर्ष लग जाते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जहां सैनिटरी नैपकिन उपयोग में अत्यंत ही सुविधा जनक है वहीं इसके महिलाओं के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर अत्यंत ही घातक दुष्प्रभाव है।

        यहीं से अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वास्तव में माहवारी स्वच्छता कार्यक्रम का कार्यक्षेत्र केवल सैनिटरी पैड को बढ़ावा देना ही होना चाहिए या इसके परे जाकर महिलाओं के स्वास्थ्य और सुविधा को ध्यान में रखते हुए अधिकतम संभव विकल्पों के बारे में सभी महिलाओं की जागरूकता बढ़ाने को भी अपने विषय क्षेत्र में लेना चाहिए।इस सम्बन्ध में भारत सरकार की गाइड लाइन बहुत सारे विकल्पों की ओर हमारा ध्यान खींचती है।भारत सरकार द्वारा माहवारी स्वच्छता के संबंध में वर्ष 2015 में जो दिशनिर्देश जारी किए गए हैं उनमें सेनेटरी नेपकिन के साथ ही मेंस्ट्रुअल कप,जैविक पैड,साफ धुला कपड़ा इत्यादि को भी हाइजीनिक साधनों में गिना गया है।यह दिशनिर्देश स्पष्ट करते है कि अगर कपड़े को भी साफ साबुन से धोकर और धूप में सुखा दिया जाता है तो उसके पुनः उपयोग में कोई संक्रमण का खतरा नहीं है।अब वास्तव में इस समय की सबसे ज्यादा जरूरत इस विषय पर खुल कर बात करने की है।क्यूंकि आम भारतीय घरों में यह विषय शर्म और अंधविश्वसों से जुड़ा है जिसके बारे में मां भी अपनी बेटी को खुलकर नहीं बताती ना ही उसे इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करती है।और यहीं चुप्पी इससे जुड़ी समस्याओं का कारण बनती है।जिन घरों में महिलाएं कपड़ा प्रयोग में लाती है वे सभी इसे घर के किसी  अंधेरे कोने में सुखाती हैं और कोई संक्रमण होने पर भी डॉक्टर से संपर्क नहीं करती।कपड़ा उपयोग करना सबसे अधिक पर्यावरण हितैषी हो सकता है बशर्ते कि उसे धूप में सुखाया जाए।यह तभी संभव होगा जब इस विषय पर घर के सभी महिला-पुरुष सदस्य अपनी लाज छोड़कर चुप्पी तोड़ेंगे और इसे एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया की तरह लेंगे।

       इस प्रकार जब तक यह घर घर में चर्चा का विषय नहीं बनेगा तब तक इससे जुड़ी हाइजीन भी दूर की कौड़ी ही रहेगी फिर चाहे महिलाएं कपड़ा उपयोग में ले या सेनेटरी नेपकिन। साथ ही माहवारी स्वच्छता की परिभाषा को भी सैनिटरी नैपकिन के उपयोग तक सीमित ना रखकर इसे एक विस्तृत अवधारणा बनाए जाने की आश्यकता है।

आज जिस प्रकार पूर्व में ही हमारे सामने अपशिष्ट प्रबंधन एक चुनौती बनकर खड़ा हुआ है यह जरूरी है कि हम सभी महिलाओं को माहवारी के दौरान उपयोग में आ सकने वाले सभी साधनों से उनका परिचय कराएं और साथ ही हर प्रोडक्ट के नफा नुकसान से भी अवगत कराएं। सीता के उदाहरण से स्पष्ट है कि जहां  सेनेटरी नेपकिन का निस्तारण ग्रामीण महिलाओं के लिए दुष्कर है वहीं यह उनकी आय क्षमता से भी बाहर है।वहां क्यूं ना हम उन्हें उनके द्वारा पहले से उपयोग लाए जा रहे परंपरागत कपड़े को ही स्वास्थ्य पूर्वक तरीके  से उपयोग में लाना सिखाएं।पर यह तभी संभव है जब माहवारी स्वच्छता की चर्चा में माहवारी संबंधी अंधविश्वासों और कुरीतियों पर भी चोट की जाए।इस संबंध में राजस्थान सरकार का चुप्पी तोड़ो कार्यक्रम उल्लेखनीय है।  यदि हम इस विषय को 7वी कक्षा या 8वी कक्षा के पाठ्यक्रम में डाल सकें तो वह सबसे बड़ा योगदान होगा क्यूंकि आज भी तीन चौथाई से अधिक लड़कियों को माहवारी आने से पहले यह नहीं पता होता कि उनके साथ ऐसा होने वाला है और जो होगा वह सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है और यही अज्ञानता भ्रांतियों का कारण बनती है।अधिकांश माताओं को भी माहवारी का वास्तविक वैज्ञानिक कारण नहीं पता होता और वे भी इससे जुड़े अंधविश्वसों को ही बढ़ावा देती हैं।यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अभी तक सेनेटरी पैड,कपड़े, बायोडिग्रेडेबल पैड या फिर माहवारी कप के कोई नवीन मापदंड भारत सरकार द्वारा निर्धारित नहीं किए गए हैं।ये ही स्थिति इंसिनेरिटर के संबंध में भी है।यहां बहुत सारे विभिन्न मापदंडो के इंसीनरेटर उपलब्ध हैं जो अलग अलग तापमान पर पैड को जलाते है।क्यूंकि भारत सरकार द्वारा माहवारी स्वच्छता को भी स्वच्छ भारत मिशन का भाग बना दिया है अतः कुछ राशि इस शोध पर भी खर्च की जानी चाहिए की सैनिटरी पैड का निस्तारण किस प्रकार किया जाए कि वह पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचा सके।


इस प्रकार अंत में मैं यही लिखना चाहूंगी कि माहवारी स्वच्छता महिलाओं का एक प्राकृतिक और मूलभूत अधिकार है और इसी अधिकार में उसे उपलब्ध सभी विकल्पों के बारे में जानने और उनके फायदे नुकसान की जानकारी का भी अधिकार शामिल है।यह एक महिला की निजी पसंद और सुविधा होनी चाहिए कि वह किस विकल्प का उपयोग करना चाहती है।